क्या खण्डूड़ी भेद पाएगी कोटद्वार का किला !

क्या खण्डूड़ी भेद पाएगी कोटद्वार का किला !

 

एनसीपी न्यूज़। कोटद्वार विधानसभा में चुनाव का माहौल भी पछुवा बादलों के बदलते मिजाज की तरह दिन ब दिन अपना मिजाज बदलता जा रहा है। ज्यों ज्यों चुनाव नजदीक आ रहे हैं चुनावी समीकरण भी तेजी से बदलते जा रहे हैं। सुरेंद्र नेगी और धीरेंद्र चौहान के बीच के मुकाबले में भाजपा के नवागंतुक प्रत्याशी ने जिस तरह हर दिन मैदान में अपनी जगह बना दी है उससे सारा चुनावी समीकरण ही उलझ गया है। स्थानीय प्रत्याशियों को स्थानीय होने के अनुभव का लाभ मिल रहा था लेकिन भाजपा के नेताओं की लगातार रैलियों और भाजपा प्रत्याशी ऋतु खंडूड़ी के सघन जनसंपर्क ने मुकाबले को बेहद रोमांचक बना दिया है। दोनों दल इसी जुगत में हैं वह कमसे कम उनके कैडर की वोट में सेंध न लगाए। क्योंकि यदि दोनों राष्ट्रीय दल मुकाबले में आमने सामने आते हैं यह तथ्य बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाएगा कि निर्दलीय किसे अधिक नुकसान पहुंचाता है। सूत्रों का कहना है कि भाजपा प्रत्याशी, अपने पार्टी के नेताओं के अनमने ढंग से किए जा रहे प्रचार या कहें मैनेजमेंट को कब्ज़ा कर प्यार से किए जा रहे भीतरघात के बावजूद, जिस तरह पकड़ बनाती जा रही है उसका कारण किसी भी चुनावी रणनीतिकार की समझ में नहीं आ रहा है। यह सभी स्वीकार कर रहे हैं की नए नए आए भाजपा प्रत्याशी ने बहुत ही तेजी से अपना प्रभाव बढ़ाया है। वोट कटाओं नेताओं को प्रारंभ से राज्य स्तर से चुनाव की बागडोर थोप देने और उन्हे विभिन्न क्षेत्रों के प्रभारी बनाने से उत्पन्न, अव्यवस्थित बूथ मैनेजमेंट होने तक के बावजूद, भाजपा प्रत्याशी के प्रति जनता की रुचि से कोटद्वार की जनता की किसी गहरी दुविधा से निजात पाने की छटपटाहट सी लग रही है। वह स्थानीय और बाहरी के राजनीति से प्रेरित कृत्रिम शोरगुल से बाहर भाजपा प्रत्याशी में आखिर क्या संभावना देख रही है? यह एक पहेली सी राजनैतिक रणनीतिकारों के लिए बन गई है। क्योंकि जिस तरह भाजपा प्रत्याशी के आने से स्थानीय प्रत्याशियों का तिलस्म टूटता जा रहा है वह निश्चय ही बेहद चौंकाने वाला है। पहले कोई इस तरह की आशा नही कर पा रहा था। जो प्रत्याशी नशा और नोट को मुद्दा बनाकर स्वयं अपने नशे और वोट की नैय्या से भीड़ जुटाकर चुनावी वैतरणी तरने के विश्वास से सरोबार थे अब उनके हाथ पांव फूलने लगे हैं। कोटद्वार जैसी चुनावी दृष्टि से बेहद उबड़खाबड़ सीट पर राजनैतिक दृष्टि से अलग तरह की साफ सुथरी पृष्ठभूमि की भाजपा की महिला प्रत्याशी की तेजी से बढ़ती स्वीकार्यता कोटद्वार की राजनीति में जनता में नए सरोकारों की चाह का संकेत तो नहीं है? जो भी हो ,यह सब हो रहा है और कोई अनदेखी किए जाने वाला तथ्य नहीं है। अंततः यही प्रश्न बूझा जा रहा है कि यह सब हो कैसे रहा है और आखिर इसके पीछे क्या क्या फैक्टर हो सकते हैं? यदि अन्य स्थानीय प्रत्याशी इस प्रश्न का गलत उत्तर देंगे तो कोटद्वार राजनीति भविष्य के लिए नए राजनैतिक विमर्श के वातावरण में प्रवेश कर जायेगी, यह साफ दिख रहा है। कहीं यह कोटद्वार का विमर्श उत्तराखंड की ही राजनीति को ही प्रभावित न कर दे। और कहीं यह कोटद्वार विधानसभा चुनाव उत्तराखंड की राजनीति का कोई लिटमस टेस्ट तो नहीं। पहले भी 2012 में *खंडूड़ी है जरूरी* का एपिसेंटर कोटद्वार बन गया था। तब किसी हारी हुई लड़ाई को जीतने के लिए किसी एक नेता की साख का यह एकमात्र प्रयोग था। लड़ाई का विचित्र परिणाम ऐसा कि जीतती हुई लड़ाई, सिर्फ उसी नेता की सीट हारने से हार में बदल गईं और फिर उत्तराखंड ने उसकी जो कीमत चुकाई वह अपने में राजनैतिक दंड है। आज जनता को इस बात की टीस तो है कि खंडूड़ी जी ने जिन पुलों को बनाया अब दस साल बाद खनन के नाम पर उन्हीं पुलों की बुनियाद खोदने वाले ही कोटद्वार की सत्ता में रहकर में अवैधखनन की बंदर बांट करते रहे। और कोटद्वार की जनता को मुंह चिढ़ाते रहे। क्या पक्ष और क्या विपक्ष। क्या मंत्री और क्या नगर निगम।

 

लोगों में यह सुगबुगाहट है कि कोटद्वार में आज भाबर का का कायाकल्प और बढ़ता आर्थिक और राजनैतिक महत्व सिर्फ़ और सिर्फ़ जनरल खंडूड़ी की ही देन है .. आज जब भूमि कानूनों की चर्चा है तो जनरल खंडूड़ी के भू कानून फिर चर्चा में हैं। हरिद्वार और कोटद्वार नजीबाबाद के बीच के पुल फिर चर्चाओं में हैं। दिल्ली पौड़ी हाईवे फिर चर्चाओं में हैं। सारे देश में सर्वप्रथम युवाओं को प्रश्न पत्र की कार्बन कॉपी देकर बाद में रिजल्ट आने के समय उत्तर कुंजिका से मिलाने का अवसर देकर और समूह “ग” की नियुक्तियों को साक्षात्कार मुक्त कर पारदर्शी चयन का अभिनव प्रयास चर्चाओं में है जिसने कभी पटवारी और दरोगा भर्ती घोटालों से हलकान गरीब लेकिन प्रतिभाशाली युवाओं को फिर से मेहनत करके पढ़ने की प्रेरणा दी।सारे भारत में सर्वप्रथम उत्तराखंड सरकारी नौकरियों में मातृशक्ति को 33% आरक्षण का विमर्श औरलागू करने की पहल का जनरल खंडूड़ी का प्रयास लोगों के जेहन में और बातों में है। उनके द्वारा लाया गया ट्रांसफर एक्ट फिर सुर्खियों में है। जनरल खंडूड़ी द्वारा लाया गया ऋषिकेश एम्स भी सुर्खियों में है ।उनके द्वारा ही देश में सबसे सस्ती फीस वाला मेडिकल कॉलेज भी लोगों को याद आने लगा है। उनके द्वारा श्रीनगर में लाया गया केंद्रीय विश्वविद्यालय भी लोगों को याद आने लगा है।

उत्तराखंड आंदोलनकारियों के लिए भी उनके प्रयास याद आने लगे हैं। और भी न जानें क्या क्या बातें जैसे जनरल साहब के प्रयासों से उत्तराखंड में रुड़की आईआईटी, श्रीनगर एनआईआई टी का खुलना , प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना से गांव गांव तक उच्च गुणवत्ता की सड़कें पहुंचाना जैसे न जानें क्या क्या। और हां आज जिस सिटिजन चार्टर को हम सब जानते है उसे सबसे पहले उत्तराखंड में ही लागू करने वाले भी जनरल खंडूड़ी ही थे। फेहरिस्त बहुत लंबी है और यह भी कि उन्होने यह सब अपने अति अल्प मंत्रित्वकाल में करके दिखा दिया। लोगों का कहना है कि आज पूरे देश में मोदी सरकार द्वारा जो काम की तूफानी रफ्तार है उस पर जनरल खंडूड़ी की अपने समय की कार्यशैली की स्पष्ट छाप है। लोगों का यह मानना है कि इसमें कहीं भी दो राय नहीं है कि पूरे देश में बातें कम और काम ज्यादा के सच्चे प्रणेता तो निःसंदेह जनरल खंडूड़ी ही हैं। बहुत से पुराने लोग याद दिलाते हैं कि 1991 में जब जनरल खंडूड़ी गढ़वाल सांसद बने तो तब से ही वे गढ़वाल सांसद के रूप में अपना रिपोर्ट कार्ड रखते थे और उसे हर चुनाव में जनता में प्रकाशित करते थे। तब कोई सोच भी नहीं सकता था कि कभी भारत की राष्ट्रीय राजनीति और राष्ट्रीय नेतृत्व के लिए जनप्रतिनिधियो का रिपोर्ट कार्ड इतना महत्वपूर्ण होगा। कुछ जागरूक लोगों का कहना है कि ऋतु खंडूड़ी भूषण के यमकेश्वर विधायक के नाते प्रस्तुत रिपोर्ट कार्ड ने वहीं यादें ताजा कर दी हैं। एक महत्वपूर्ण बात और कि जनरल खंडूड़ी जी के समय में राजनीति में सेकुलर प्रभाव के चलते इफ्तार की दावतनुमा राजनीति अपरिहार्य थी। यहां तक कि आडवाणी जी जैसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा तक ने जिन्नाह की मजार का दीदार कर डाला लेकिन जनरल खंडूड़ी ने कभी इस राजनैतिक तिकड़म अनुसरण नहीं किया। उनका अपनी धार्मिक मान्यताओं का राजनैतिक स्वार्थ के समझौता न करने का भी आज के देश के राजनैतिक परिदृश्य पर प्रभाव है। वरना उस दौर में सेकुलरिज्म का ऐसा प्रभाव था कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के पुरोधा आडवाणी जी तक जिन्नाह की मजार पर हो आए थे ।गढ़वाल के लिए तो खंडूड़ी होने का क्या अर्थ है यह इससे ही अनुमान लगा सकते हैं कि जनरल खंडूड़ी के मुख्यमंत्री रहते कोटद्वार पौड़ी नेशनल हाइवे परसुंडाखाल तक चौड़ा हुआ था और उनके मख्यमंत्री पद से हटते ही आज दस साल बाद भी परसुंडाखाल से पौड़ी तक राष्ट्रीय राजमार्ग किसी गांव की सड़क की तरह संकरे का संकरा ही है ।सभी दलों की सरकार आ गई पर जनपद और कमिश्नरी को जोड़ने वाले इस मुख्य मार्ग को चौड़ा नहीं कर सके और कोटद्वार नजीबाबाद के राष्ट्रीय राजमार्ग के गड्ढों की चर्चा करना तो स्वयं को घोर मानसिक कष्ट देना ही है। बस जहां तक जो जनरल खंडूड़ी करके छोड़ गए थे वहीं तक कोटद्वार और पौड़ी वालों के लिए समय ठहर सा गया है। जनरल खंडूड़ी की कार्यशैली और प्रभावमंडल इतना प्रभावी था कि कोई नहीं नकार सकता है यदि जनरल खंडूड़ी अविभाजित उत्तर प्रदेश में रहते तो वहां के भी मुख्यमंत्री होते।वाकई एक वयोवृद्ध जनरल की मुख्यमंत्री रहते हुए देश विदेश में चर्चित चुनावी हार के दस साल बाद भी चुनावी विमर्श में उनकी प्रासंगिकता क्या बहुत ही अजीब घटना नहीं है? और यह तो बताने की ही जरूरत ही नहीं कि 2012 में कोटद्वार विधानसभा चुनाव में जनरल खंडूड़ी के साथ हुए विश्वासघात के तरह तरह के किस्सों ने फिर लोगों की चर्चाओं में जगह बनाकर पुराने पात्रों को असहज करके रख दिया है। वैसे 2012 में खंडूड़ी जी कोटद्वार से हारते भी नहीं लेकिन उनके द्वारा अन्ना हजारे की मांग लोकायुक्त देने के वादे ने सारे।देश के भ्रष्ट राजनीतिज्ञों की नींद उड़ाकर रख दीऔर कोटद्वार अन्ना आंदोलन के सरोकारों का एपिसेंटर बन गया और सारे देश का राजनेतिक हस्तक्षेप कोटद्वार चुनावों में हो गया और फिर तो क्या क्या नहीं हुआ। दूसरी तरफ़ लोगों का कहना है खंडूड़ीजी को घेरे रखने वाले उनके सिपहसालारों की गर्भ भी पहले से कहीं जुड़ी थी जो उन चुनावों उनकी भूमिका से पूरी तरह साफ हो गई। लेकिन अब भाजपा के रणनीतिकारों ने खंडूड़ी को फिर से जरूरी तो नहीं कर दिया है? क्या ये कारण ही हैं कि जिसने नए नए आए भाजपा प्रत्याशी को इतने शीघ्र कोटद्वार विधानसभा चुनाव में मुख्य प्रतिद्वंदी बना दिया है या कुछ इसके अलावा भी कुछ संभावनाएं हैं जो भाजपा प्रत्याशी में जनता को दिख रहीं हैं या इनके साथ मोदी जी के कार्यों का प्रभाव इसका कारण है। संभवतः इसी कारण विपक्ष मोदी प्रभाव का यह तोड़ ढूंढ कर अपनी जान बचा रहा कि केन्द्र में मोदी ही ठीक है लेकिन प्रदेश में सबक सिखाने के लिए परिर्वतन जरूरी है। लेकिन लोग सबक सिखाने के चक्कर में अपने क्षेत्र और प्रदेश के पांच साल खराब करने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। क्योंकि उत्तराखंड में डबल इंजन जैसा भी रहा हो इसने बहुत से महत्वपूर्ण कार्य तो किए ही हैं जो अन्यथा होने ही संभव नहीं थे, ऐसा लोगों का मानना है। दूसरी ओर निर्दलियों से खरीद फरोख्त और राजनैतिक अस्थिरता का अंदेशा है। यही सवाल राजनैतिक मुद्दों के बुनकरों को उधेड़बुन में रखे हैं। बाकी राजनैतिक दलों के लिए जातीय और साम्प्रदायिक समीकरण और नशा और नोट तो अन्तिम सहारा है ही। फिलहाल देखते हैं कि 2012 से 2022 तक पिछले दस सालों में उत्तराखंड और कोटद्वार की राजनैतिक गंगा में कितना पानी बहा है।

Ravikant Duklan (MA. MassCom )

Related articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *